इन्सानी दिमाग भी अजीब चीज़ होती है। इन्सान कभी पहाड़ चाहता तो कभी समन्दर, कभी धूप चाहिए तो कभी छाँव। और कभी कभी धूप से छाँव में आकर भी चाहता है कि अब बारिश ही हो जाये। मुख़्तसर सी बात ये है कि हमारी इच्छाएं कभी ख़त्म नहीं होतीं। शायद यही वजह है कि जहाँ गुलज़ार साहब को मंच पर इंटरव्यू देखते वक़्त जहां हम बल्लियों उछल रहे थे, कुछ वक़्त गुजरने के बाद दिल में कुछ शिकायतें ठहर गयी थीं। अब वो कितनी जायज़ हैं और कितनी नहीं ये आप हिसाब कीजिये, लेकिन पहले गुलज़ार साहब के उस गीतमय इंटरव्यू की कुछ झलकियां आपके लिए।
इंटरव्यू की शुरुआत में एक चीज़ जिस की ओर भावना जी ने ध्यान दिलाया वो ये कि गुलज़ार साहब ने पिछले दशक में तकरीबन बत्तीस फिल्मों के लिए गीत लिखे जो उनके पिछले दशक के काम से भी कहीं ज़्यादा है। इस दशक में भी वो करीब सोलह फिल्मों के लिए गीत लिख चुके हैं।
खैर, आज के कार्यक्रम का ढांचा कुछ इस तरह से था कि कुछ गीत बजाये गए और गुलज़ार साहब ने ये बताया कि उस गीत का जन्म किस तरह से हुआ। कई जगहों पर गीत के बनने की कहानियाँ मिलीं तो कहीं कहीं गीतों से जुड़े लोग और यादें।
पहला गीत था गुलज़ार साहब का पहला गीत, मोरा गोरा अंग लई ले। इस गीत से जुड़ी कई सारी कहानियां थीं। पहली कहानी - गुलज़ार साहब को ये गीत कैसे मिला।